मन के अन्दर अच्छे, बुरे संकल्पों का संघर्ष चलता रहता, स्वामी अडगडानंद जी महाराज

☘🌷 ॐ श्री परमात्मने नमः☘🌷
--------------------लंका काण्ड--------------------
छंद-
कादर भयंकर रुधिर सरिता चली परम अपावनी । दोउ कूल दल रथ रेत चक्र अवर्त बहति भयावनी । । जल जंतु गज पदचर तुरग खर विविध वाहन को गनै । सर शक्ति तोमर सर्प चाप तरंग चर्म कमठ घने । । 


दो . - बीर परहिं जनुतीर तरु , मज्जा बहु बह फेन । कादर देखि डरहिं तहं , सुभटन्ह के मन चेन । । 


तो जब रावन का यज्ञ विध्वंश , कर दिया गया तो वह अब मरने को तैयार होकर राम के सामने आया । ' चलेउ निसाचर क्रुद्ध होइ , त्यागि जीवन की आस । अब  घमासान लड़ाई हुई । इसका बड़ा भयंकर - वीभत्स चित्रण किया है गोस्वामी जी ने । खून की नदी बह चली । भूत , प्रेत , पिशाच मज्जन कर रहे हैं । उस समय कायरों को  भय लग रहा है , और जो बहादुर हैं , वे धैर्य के साथ युद्ध कर रहे हैं , ललकार रहे हैं।जो डरपोक हैं उनकी हालत खराब है , खटिया खड़ी है उनकी । ऐसी ही समस्या है हर  एक साधक के सामने । जब साधना की प्रक्रिया को आद्योपांत देखा - समझा जाता  है - पूरा चित्र सामने आता है , तो इनमें जो साधक साहसी हैं , दृढ़ निश्चयी हैं , जो अपना जीवन होमने को तैयार होते हैं , उन्हें तो शान्ति रहती है । निश्चिंत रहकर साधना में लगे रहते हैं । जो कादर हैं , हिम्मत के कच्चे हैं ,वे डर जाते हैं। अरे  बाप रे बाप ! बड़ा लंबा कोर्स है । बड़ा कठिन काम है । मोह सहज में न मरेगा ।  क्रोध सहज में पीछ न छोड़ देगा । काम को काबू में करना सरल नहीं है । बड़ी  मेहनत करनी पड़ेगी । जब हम अपने अवगुणों को मारेंगे तो हमें भी कुछ न कुछ  चोट पहुँचेगी । ऐसा तो हो नहीं सकता कि हम तो उन्हें मार लें और हमें कोई कष्ट  न उठाना पड़े । जितनी चोट उधर वाले को लगती है , उतनी ही मारने वाले की इनर्जी  खर्च होती है । इसीलिए तो वह शक्ति रूपी सीता अर्पण कर दी गई है , कि शक्ति चाहे  पूरी खर्च हो जाय हमारी , लेकिन ये दुष्ट सब मारे जायं , एण्ड ( अंत ) हो जाय । हम मुक्त तो हो जायं माया से । यहां सीता का अपहरण , जो दिखाया जाता है , ऐसा यह  नहीं है । पंचवटी और लंका सब यहीं इस शरीर मे ही हैं । सीता कहीं आती - जाती नहीं हैं । वह तो योग - साधना करके प्राप्त की जाती है - साधक द्वारा अर्जित क्षमता है । यह क्षमता इसी के लिए प्राप्त की जाती है , कि साधना में आगे चलकर काम आती  है । इस तरह से साधना में तो पूर्व जन्मों तक की कमाई काम आती है । लेकिन दुनिया का रवैया ऐसा है , कि जब कोई किसी के द्वारा मार खा जाता है , तो उस  मार खाने वाले से ही पूछते हैं सब , कि कहां चोट लगी ,कितना घाव हुआ , कहीं  प्रेक्चर ( अंग भंग ) तो नहीं हुआ ? यह कोई नहीं पूछता कि उस मारने वाले को  कितनी चोट पड़ी ? उसकी इनर्जी कितनी खर्च हो गई । उसे भी अपनी क्षमता गवांनी  पड़ती है । इसलिए जो मारने वाला है , वह पहले से अर्पण कर देता है । समर्पित कर देता है पूरी क्षमता । पहले ही सीता का अपहरण करा दिया जाता है - स्वेच्छा से । कि  हम अपनी पूरी ताकत , अपना सब कुछ समर्पित करते है । और समर्पण जिसका हो जाता है , वह फिर साधना रूपी इस भयावह युद्ध में अड़ा रह जाता है , खड़ा रहा जाता है । वह कभी दगा नहीं देगा , कभी डरेगा नहीं , पीछे हटेगा नहीं , विजय उसी को मिलेगी । 


तो यहां जो युद्ध चलता है साधक के अन्दर - मोह का दल रावण का और राम  का ज्ञान का दल - इन दोनो में चलता है । एक बार मन में ज्ञान के संकल्प जोर  मारते हैं, तो वहीं मन में मोह के विचार भी उठ जाते हैं । तब पहले वाले सजातीय संकल्प दब जाते हैं । यह जो भजन करते हुए भी मै - मेरा का भाव बना है मन में , यह रावण जल्दी हटाए हटता नहीं । इसी को जड़ से खतम करने में लगा है साधक । अपने ज्ञान , विवेक , वैराग्य , अनुराग जितने साधन हैं , सबकी मदद से इस मोह को  हटाना है - यही युद्ध है । इसी का नाम साधना है । 


तो अब मोह के जो सहयोगी विकार थे अन्दर , साधक ने एक - एक करके उन्हें मार दिया है । क्रोध , काम , लोभ , मद , मत्सर , ईष्या , द्वेष सब मर मिट गए । लेकिन ये सब वस्तुतः मरते नहीं है । ये तो सूक्ष्म अवयव हैं । शरीरों की तरह ये नहीं  मरते - कटते । न दुर्गण मरते हैं, न सदगुण मरते हैं । ये तो केवल कथा - कहानियों में मरते हैं । जब इन्हें बाहर स्थूल रूप में दिखाया जाता है - कुंभकरण के रूप , में मेघनाद के रूप में , तब इनका मरना - कटना भी दिखाया जाता है । घायल हो गए  खून की नदी बह चली । न खून है वहां, न कुछ है । बस साधक बैठा है , और उसके अन्दर प्रक्रिया चल रही है । मन के अन्दर अच्छे - बुरे संकल्पों का संघर्ष चल रहा है । इसी शरीर के अन्दर विद्या भी अपना हेरा लगाए है , अविद्या भी अपना डेरा जमाए  है । अविद्या की भी संचार प्रक्रिया इसमें चल रही है , और विद्या भी अपना ट्रेनिंग सेंटर  खोले हुए है । इनमें अविद्या क्षेत्र में जो योद्धा हैं , जब उनका आवेश आता है - उनकी  सच्चाई सामने आती है, तो हमारे मन - बुद्धि , इंद्रियां और इनमें बैठे हुए देवी - देवता सब  त्राहि - त्राहि बोलने लगते हैं । और जब विद्या क्षेत्र के अवयव हावी होते हैं , तो उधर हडकंप मच जाता है । यही दो तरह के संकल्पों का - विचारों का आवेग है - अन्दर से आता - जाता रहता है । यह महायुद्ध है - महा संग्राम है । इसमें क्षण - प्रतिक्षण मन के अन्दर जो अच्छाई - बुराई का उदय अस्त होता है , उसे नित्य नैमित्यिक प्रलय कहते हैं । जब विद्या के द्वारा अविद्या को समाप्त कर दिया जाता है , तो इसी को प्रकृति प्रलय कहा जाता है । और जब विद्या और अविद्या दोनों के ऊपर उठ जाता है , तो उसे महाप्रलय कहा जाता है । कोई - कोई होता है जो महाप्रलय कर पाता है । इस तरह से ये सब बातें साधक के अन्दर आती हैं । बाहर कहीं यह सब नहीं होता है । श्रोत श्री परमहंस आश्रम यथार्थ गीता,रवि सिंह  
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