प्रेम और मोह मे अन्तर
भगवत प्रेमी को भगवान की बातें लगती है प्राण प्यारी

2019-11-21 • Jagdish Singh


॥श्रीहरिः॥
वास्तवमेँ प्रेमका स्वरुप अनिर्वचनीय है । कुछ कहा
नहीँ जा सकता, परंतु उसका कुछ अनुमान किया जाता है ।
प्रेम होने पर प्रेम करने के लिए कहा नहीँ जाता ।
लोभी को यह कहना नहीँ पड़ता कि तुम रुपयोँसे
प्रेँम करो । कभी बाप-दादे ने भी पारस आँख से
नहीँ देखा; परंतु लोभी को पारस बड़ा प्यारा है ।
नाम सुनते ही मुख खिल उठता है । इसी प्रकार
भगवानमेँ प्रेम होनेपर उसका नाम सुनते ही परम आनंद होता
है । लोभी को धनकी और कामीको
जैसे सुंदर स्त्रियोँकी बातेँ अच्छी
लगती हैँ । इसी प्रकार
भगवत्प्रेमीको भगवानकी बातेँ
प्राणप्यारी लगती हैँ । जैसे अपने
प्रेमी मित्रका नाम सुनते ही उस ओर ध्यान चला
जाता है और उसकी बातेँ सुहावनी
लगती हैँ, वैसे ही भगवत्प्रेमीको
भगवानकी बातेँ सुहाती हैँ । प्रेम और मोह मेँ बड़ा
अंतर है । प्रेम विशुद्ध है, मोह कामना से कलंकित है । मोह मेँ स्वार्थ
है, वह छूट सकता है, प्रेम स्वार्थरहित और नित्य है । बालकका
मातामेँ एक मोह होता है, जिससे वह माताके पास तो रहना चाहता है;
परंतु उसके आज्ञानुसार काम करनेके लिए तैयार नहीँ रहता ।
प्रेममेँ ऐसा नहीँ होता । वहाँ तो अपने प्रेमास्पदको कैसे सुख
पहुँचे, कैसे उसका कोई प्रिय कार्य मैँ कर सकूँ, इसी
बातकी खोजमेँ प्रेमी रहता है । परंतु ऐसे बहुत
कम लोग होते हैँ । भगवान और उनके भक्तोँमेँ ही ऐसे भाव
प्रायः पाये जाते हैँ ।
हेतु रहित जग जुग उपकारी । तुम्ह तुम्हार सेवक
असुरारी ॥
उमा राम सम हितु जग माही । गुरु पितु मातु बंधु कोउ
नाहीँ ॥
सुर नर मुनि सब कै यह रीती । स्वारथ लागि
करहिँ सब प्रीती ॥
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!
श्रद्धेय जयदयाल जी गोयन्दका (सेठजी) तत्त्व-
चिन्तामणि पुस्तक से गीताप्रेस गोरखपुर। हृदय नाथ की पोस्ट " alt="" aria-hidden="true" />