यूं हुआ कि एक आदमी पर अदालत में मुकदमा था। उसने हत्या कर दी थी, कुल्हाड़ी उठा कर और एक आदमी की गर्दन काट दी थी। मजिस्ट्रेट ने उसे जीवन भर का कारावास दिया। उस आदमी ने कहा, यह अन्याय है! क्योंकि मेरे दाएं हाथ ने कुल्हाड़ी उठाई और उस आदमी की गर्दन काटी। अब हाथ के कसूर के लिए मेरे पूरे शरीर को, मुझको जीवन भर का कारावास, कैसा न्याय है!
मजिस्ट्रेट को भी मजाक सूझा। उसने कहा, फिर ठीक है, हम तुम्हारे दाएं हाथ को जीवन भर का कारावास देते हैं।
मजिस्ट्रेट ने सोचा कि जब दायां हाथ जेलखाने में रहेगा तो पूरा शरीर भी तो उसके साथ ही रहेगा, जाएगा कहां। वहां जरा चूक हो गई। मजिस्ट्रेट के यह कहने पर उस आदमी ने अपना दायां हाथ निकाल कर और मजिस्ट्रेट की टेबल पर रख दिया। दायां हाथ उसका कृत्रिम था।
आदमी के बड़े चालबाजी के ढंग होते हैं। आदमी हमेशा दोष किसी पर थोप देना चाहता है। हाथ का कसूर है! तुमने सूरदास की कहानी सुनी है। सुंदर स्त्री के प्रति आंखें मोहित हो गईं तो आंखों को फोड़ दिया। अब आंखें कहीं मोहित होती हैं? मोहित मन होता है। मोहित तुम होते हो। आंखों का क्या कसूर है? लेकिन आदमी हमेशा किसी पर दोष को थोप देना चाहता है, अपने को बचा लेना चाहता है।
आंखें तो तुम जो दिखाओ वही देखने को राजी हैं। चाहे सूर्यास्त देखो, चाहे सूर्योदय देखो, चाहे स्त्रियों की तस्वीरें देखो, जो तुम्हारी मर्जी हो। आंख का कोई भी कसूर नहीं।
मैं तुम्हें यह बात बार-बार समझा देना चाहता हूं, क्योंकि सदियों से तुम्हें गलत ढंग से संस्कारित किया गया है--शरीर को सताओ, शरीर पाप का कारण है। शरीर पाप का कारण बिलकुल भी नहीं है। शरीर सीढ़ी बन जाता है। थोड़े कलात्मक होना सीखो। थोड़े जीवन को जीने का ढंग, जीवन को जीने का विज्ञान समझो।
और यूं ही मन को भी उपयोग में लाया जा सकता है। यूं ही हृदय को भी उपयोग में लाया जा सकता है। ये तुम्हारे तीन चरण हैं, जिनके द्वारा तुम चौथे परोक्ष पर पहुंच सकते हो। ये प्रत्यक्ष हैं। शरीर तो तुम्हें भी दिखाई पड़ता है, दूसरों को भी दिखाई पड़ता है। मन केवल तुम्हीं को दिखाई पड़ेगा, मगर प्रत्यक्ष तो है। अगर आंख बंद करके तुम मन की प्रक्रिया को देखोगे तो देख सकते हो। हजारों-हजारों विचारों का सिलसिला, राह चलती ही रहती है मन की। कभी वासना, कभी विचार, कभी स्मृति, कभी कल्पना, कभी राग, कभी द्वेष, कभी धर्म, कभी अधर्म, सब चलता है। तुम इसे देख सकते हो। तुम इसके साक्षी हो सकते हो। और जैसे ही तुम साक्षी हुए, मन प्रत्यक्ष हो गया, आंख के सामने हो गया।
इसी आंख को हमने तीसरी आंख कहा है। साक्षी-भाव तीसरी आंख है। तीसरी आंख वस्तुतः कोई शरीर का अंग नहीं है, केवल प्रतीक है--देखने की आंतरिक क्षमता। फिर इसी तीसरी आंख को थोड़ा और निखारो तो भावनाओं को देख सकते हो। भावनाएं और भी सूक्ष्म हैं--सूक्ष्म हैं विचारों से। मन में उठी हुई जो विचारों की तरंगें हैं, इनसे भी ज्यादा सूक्ष्मतर तरंगें हृदय में उठती हैं। मगर एक बार देखने की कला आ जाए, साक्षी की प्रक्रिया समझ में आ जाए, तो तुम अपनी सूक्ष्मतम तरंगों को भी देख सकते हो। फिर वे प्रत्यक्ष हो जाएंगी।
और जिस क्षण ये तीनों प्रत्यक्ष हो जाएंगे, उस क्षण चौथी क्रांति घटेगी। तब तुम स्वयं को देख पाओगे। वहां देखने वाला और दिखाई पड़ने वाला दो नहीं होंगे। वहां द्रष्टा और दृश्य एक होगा। वही परमात्म-अनुभूति है। और जो व्यक्ति इस अनुभूति को उपलब्ध हो जाता है--यः सर्वः कृत्सनो मन्यते गायति वैव गीते वा रमते। उससे गीतों के झरने फूट पड़ते हैं।
तुम्हारे संत इतने रूखे-सूखे मालूम पड़ते हैं, इतने मुर्दा मालूम पड़ते हैं, कि यह माना नहीं जा सकता कि उन्होंने अपने को जाना होगा। क्योंकि जिसने अपने को जाना है, उससे गीतों के झरने फूटने ही चाहिए। उसके जीवन में उत्सव होना ही चाहिए। उसके पैरों में घुंघरू बंधेंगे ही। उसके ओंठों पर बांसुरी आएगी ही। उसके शब्द-शब्द में रस होगा। उसके उठने-बैठने में, उसके देखने में, उसके चलने में, उसके बोलने में, न बोलने में, उसके मौन में भी संगीत होगा। उसका सारा जीवन, जीवन के सारे रंग किसी अलौकिक आभा से मंडित होंगे।
तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी जैसे रूखे-सूखे मालूम पड़ते हैं, वह काफी प्रमाण है इस बात का कि उनके भीतर गीतों के झरने फूटे नहीं, उनके जीवन में उत्सव नहीं आया। वे किसी स्वर्ग की आकांक्षा कर रहे हैं जो मृत्यु के बाद घटेगा। वस्तुतः जो स्वर्ग है वह अभी घटता है, यहीं घटता है। कोई स्वर्ग मृत्यु के बाद की भौगोलिक चीज नहीं है। स्वर्ग वह अनुभव की दशा है जब तुम्हारे भीतर प्राण नाच उठते हैं। यः सर्वः कृत्सनो मन्यते गायति वैव गीते वा रमते। न केवल गीतों के झरने फूट पड़ते हैं, बल्कि जीवन संगीतपूर्ण हो जाता है, एक उत्सव बन जाता है।
ओशो : राम नाम जान्यो नहीं (8) साभार ओशो पेज
आदमी के चालबाजी के होते है बहुत ढंग,अपना दोष दूसरे पर थोपने में होता है माहिर,जीवन है उत्सव,अपने अन्दर के संगीत को जरा सुनो तो