संसार में मानव द्वारा संचित किया हुआ धन लगता है एक समय नीरस,पशु पक्षी का कलरव ही संगीत


ओम् श्री परमात्मने नमः
संसार में मानव द्वारा संचित किया हुआ धन भी एक समय नीरस लगने लगता है। जब सब कुछ रहते हुए भी अपने आपको अधूरा समझता है। यही विकलता उसे सब कुछ त्यागने को विवश कर देता हूं। तब मनुष्य आत्मिक सम्पत्ति ( सत्य) की खोज में निकल पड़ता है। ऐसे ही एक समय महाराज अजातशत्रु का मन अशांत हो गया, तो आत्म कल्याण की इच्छा से प्रेरित होकर तप साधना करने का निश्चय किया। 
जब यह बात अपने विद्वानों से कहा तो उन्होंने सलाह दिया-कि अध्यात्मिक साधना किसी मार्ग दर्शक सदगुरु के सानिध्य में हो सकती है।
योग्य सदगुरु की पहचान क्या है?
महाराज! तत्वदर्शी महापुरुष ही गुरु के योग्य होता है। उन्हीं के प्रेरणा से आत्मिक सम्पत्ति प्राप्त होती है।
ऐसे तत्वदर्शी महापुरुष कहां प्राप्त होंगे? यही विचार करते हुए अपने शयन कक्ष में प्रवेश किया। तो रानी विद्यावती ने कहा-
 महाराज! आप किस उधेड़बुन में चिन्तित हो?
महाराज ने अपनी समस्या कह सुनाई। 
तब रानी ने हंसते हुए कहा- महाराज! यह कार्य मेरे लिए साधारण सी बात है, आप निश्चिंत होकर विश्राम करें। कल ही महापुरुष का चयन हो जायेगा।
दूसरे दिन महाराज ने घोषणा किया कि हमें आत्म ज्ञान प्रदान करने वाले एक महापुरुष ( सदगुरु) की तलाश है अतः राज्य के जितने भी विद्वान, संत महात्मा हैं, उपस्थित हो। महारानी उनका चयन करेंगी।
राजा का गुरु बनने के उद्देश्य से बहुत संत महात्माओं का आगमन हुआ। तब रानी ने आदेश दिया जो कोई भी सबसे कम समय में अपने लिए महल का निर्माण पूर्ण कर लेगा, उसे ही महाराज अपना गुरु स्वीकार करेंगे। महल के लिए आवश्यक सामान की आपूर्ति राजकोष से की जायेगी। कारीगर और मजदूर का खर्च भी स्वयं महाराज प्रदान करेंगे। 
फिर क्या था अपने महल के लिए सभी आए हुए महात्मा जगह इत्यादि का माप करने लगे। इस सारे कार्य की देखभाल स्वयं राजा और रानी कर रहे थे। घूमते हुए एक ऐसे महापुरुष पर नजर पड़ी जो एक वृक्ष के नीचे शान्त बैठकर चिन्तन कर रहे थे। उन्हें निश्चिंत बैठे देखकर रानी ने कहा-
महात्मन्! आप अपने लिए महल का निर्माण नहीं कर रहे हैं?
साधु ने हंसकर कहा-
महारानी! मुझे महल की क्या आवश्यकता। जब ईश्वर ने यह विराट जगत ही महल के रूप में दिया हुआ है, पहाड़ की कंदराएं ही भजन स्थली है, और विस्तृत वन ही बाग बगीचे हैं, वृक्ष की छांव ही विश्राम स्थली है। भजन चिन्तन ही परमानंद प्रदान करने वाली आधार है। पशु पक्षी के कलरव ही हमारे संगीत हैं। हम तो आप के आज्ञा पालन करने हेतु ही यहां आया हूं। अन्यथा  सहज वैरागी मन को इन सांसारिक सुख वैभव से क्या औचित्य है।
भगवान्! मुझे अपने श्री चरणों में स्थान देने की कृपा करें जिससे मेरा भी कल्याण हो जाय।
राजन! एक राजा का हृदय तो एक बैरागी होता है उसे तो प्रजा पालन ही सर्वोपरि निःस्वार्थ सेवा है।
ओम श्री सदगुरुदेव भगवान की जय
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परम पूज्य श्री स्वामीजी की कृपा
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 श्री लाले महाराज जी 
परमहंस आश्रम शक्तेशगढ़ चुनार मिर्जापुर  यूपी 8853624127