अनुभवी ज्ञान होने पर ही भक्त हो पाता है निर्भय,ईश्वर पर भरोसा ही पार होने की कुन्जी

  गुरु-मुख होना साधक की एक बड़ी उच्च अवस्था है।यह अवस्था पूर्ण समर्पण के बाद ही आती है,इसके पहले साधक मनमुख ही रहता है।


  चाहिए कि अपनी इच्छायें गुरु की इच्छाओं में विलीन कर दे।दिल में कोई किसी प्रकार की इच्छा न आने दें, जैसे गुरु चलावे वैसे ही चले। "गुरु फेरे तैसे फिरे त्यागे अपनी खोर" अपने को उसके हाथों में सौंप दे।यही गुरुमुख होना है।


 गुरुमुख शिष्य के साथ गुरु का निष्काम प्रेम दिन-दूना बढ़ता ही जाता है और शरीर के साथ ही नहीं बल्कि शरीर के पश्चात् मुक्तिधाम तक संग जाता है और सदा जीवन में और जीवन के पश्चात् रक्षा करता है। प्राकृतिक नियमानुसार कोई पिता अपने प्यारे पुत्र को कष्ट में नहीं रखना चाहता,खुद कष्ट झेलेगा और पुत्र को आराम देगा।इसी नियम में बंध के गुरु स्वयं दु:ख उठाता है और शिष्य को परम सुख के धाम में पहुॅ॑चाता है।


अनुभवी ज्ञान होने पर ही भक्त निर्भय हो पाता है,अपने को उन पर छोड़ पाता है,यह ऐसा भरोसा ही पार होने की कुंजी है,उसके लोक में पहुॅ॑चने की सीढ़ी है।


 समर्पण और आश्रय अत्यन्त ही उच्च कोटि के साधन हैं। कोई-कोई भाग्यशाली ही ईश्वर व गुरु की दया से यहॉ॑ तक पहुॅ॑चते हैं वर्ना नीचे के स्थानों में ही भटकते रहते हैं। परन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि जब तक जिज्ञासु यहॉ॑ तक नहीं पहुॅ॑च लेता उसका काम कभी पूरा नहीं होता।दर्शन-समीपत्व,मोक्ष बिना समर्पण किये और आश्रय लिये कभी नहीं मिल सकते।


शुद्ध आध्यात्म ज्ञान, साभार सतसंग फेसबुक पेज